किसी राजा के पास एक बकरा था. एक बार उसने एलान किया कि
जो कोई मेरे इस बकरे को जंगल में चराकर तृप्त करेगा, मैं उसे आधा राज्य
दे दूंगा. किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मैं खुद
करूँगा. इस एलान को सुनकर एक आदमी राजा के पास आकर कहने लगा कि बकरा को
चराकर उसका पेट भरना कोई बड़ी बात नहीं है. वह बकरे को जंगल में ले गया
और पूरा दिन उसे चराता रहा. शाम तक उसने बकरे को खूब घास खिलाई और फिर
सोचा कि दिनभर इसने इतनी घास खाई है अब तो इसका पेट भर गया होगा. अब इसे
राजा के पास ले चलना चाहिए. बकरे को लेकर वह राजा के पास गया. राजा ने
थोड़ी-सी हरी घास बकरे के सामने रखी तो बकरा उसे खाने लगा. इसपर राजा ने
उस आदमी से कहा – "तुमने उसे पेट भर खिलाया ही नहीं वर्ना वह घास क्यों
खाने लगता." बहुतों ने बकरे का पेट भरने का प्रयत्न किया किंतु ज्योंही
दरबार में उसके सामने घास डाली जाती कि वह खाने लगता. एक होशियार व्यक्ति
ने सोचा - इस एलान का कोई रहस्य है, तत्व है. मैं एक युक्ति से काम
लूँगा." वह बकरे को चराने के लिए ले गया. जब भी बकरा घास खाने के लिए
जाता तो वह उसे लकड़ी से मार देता. पूरे दिन में ऐसा कई बार हुआ. अंत में
बकरे ने सोचा कि यदि मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी.
शाम को वह होशियार व्यक्ति बकरे को लेकर राजदरबार में लौटा. बकरे को उसने
बिलकुल घास नहीं खिलाई थी फिर भी राजा से कहा, मैंने इसको भरपेट खिलाया
है. अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा. कर लीजिये परीक्षा. राजा से घास
डाली लेकिन उस बकरे ने उसे खाना तो दूर उसे न ही देखा न ही सूंघा. बकरे
के मन में यह बात बैठ गयी थी कि यदि घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी. अत: उसने
घास नहीं खाई.
यह बकरा हमारा मन ही है. बकरे को घास चराने ले जाने वाला जीवात्मा है.
राजा परमात्मा है. मन को मारो, मन पर अंकुश रखो. मन सुधरेगा तो जीवन
सुधरेगा. मन को विवेकरूपी लकड़ी से रोज पीटो. भोग से जीव तृप्त नहीं हो
सकता. भोगी रोगी होता है. भोगी की भूख कभी शांत नहीं होती. त्याग में ही
तृप्ति समाई हुई है.
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